Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक ग़लतफ़हमी 86455 0 Hindi :: हिंदी
साहब, हम ग़लतफ़हमी में जीते हैं। सब मेरे पीछे, मैं किसी के पीछे नहीं। सब मेरे नीचे, मैं किसी के नीचे नहीं। मेरे ही कर्म सच्चे, अन्य के अच्छे नहीं। मेरे जाने पर क्या होगा, मेरे जैसे बचे नहीं। मैं ही बुद्धि बल से भरा, सब रीते हैं। साहब, हम ग़लतफ़हमी में जीते हैं। मेरे बिन, काम चल नहीं सकता। मेरे बिना घर में, नमक डल नहीं सकता। मेरे जैसा होशियार, दूसरा मिल नहीं सकता। मेरे छाने में तुष, निकल नहीं सकता। मैं अति महत्त्वपूर्ण, मेरी चलती, चित्त में चीते हैं। साहब, हम ग़लतफ़हमी में जीते हैं। वह मेरा, महज़ मेरा ही है। संसार में कोई किसी का नहीं, वो कैसे तेरा ही है? मैं, सबको मूर्ख बनाता। तू बनाता या बनता, यह वक़्त ही बताता। मुंह में हड्डी, खुद का खून, खुद ही पीते हैं। साहब, हम ग़लतफ़हमी में जीते हैं। ग़लतफ़हमी में जीते हैं।