Santosh kumar koli ' अकेला' 22 Jul 2023 कविताएँ समाजिक समय की सोच 9188 0 Hindi :: हिंदी
एक डाल पर पल्लव, उसी पर जरी पात है। एक में जोश, दूजे में होश, दोनों पर समय का हाथ है। एक देखे उत्तर, दूसरा दक्षिण, देखे नहीं एक दूजे को। कैसे रंग पकड़े ख़रबूज़ा, जब देखे तरबूज़े को। रहते साथ- साथ, करते न बात, पर मूक नहीं हैं। मखमूर, रहते अमचूर, पर रसूख़ नहीं हैं। एक पास समय का जोश, दूजे के पास अनुभव का होश है। एक के पास बाट की लाट, दूजे के पास अनुभव का कोष है। रहते एक डाल, सोचे आल-जाल, बुनते हैं जाल, खोते ख़याल। रहते समकाल, चलते वक्र चाल, बुनते मकड़जाल, घर-घर मिसाल। अपनी -अपनी सोज़, सोच से, ज़रा डरो तो सही। नई, पुरानी सोच खाई को, जरा भरो तो सही। नव जरा जिरह में, कम पाना ज़्यादा खोना है। हर युग, हर जुग में, हर पल्लवी का यही रोना है। दोनों उत्तप्त, दोनों उत्कंठित, है समय का तक़ाज़ा। छोड़ो अपनी -अपनी डफली, राग, छोड़ो अपना- अपना मांजा। काश! पल्लव जड़ को जड़, डाल को डाल मानता। पीत पात भी हरित पात को, निज की ढाल मानता। निज की ढाल मानता।