Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक सयाना मन 22006 0 Hindi :: हिंदी
ऩजर को लगी ऩजर, दिखाई देते पर दोष। खुद को तो मानता, गुण-रत्न का कोष। दूसरों की उघाड़कर, खुद की ढकने का होश। दूर की जलती सूझे, घर में जले तो नहीं दोष। पर वही बात, कोई मेरी नहीं खोले, तो मैं सबकी खोल दूं। कोई मेरी नहीं बोले, तो मैं सबकी बोल दूं। दुनिया को देखता, कभी खुद में भी झांक। मन में मन लगा, खोल मन की आंख। नज़रिया नज़ारा देख, दुनिया अनार फांक। खुद का सवार बन, फिर दुनिया को हांक। पर वही बात, कोई मेरी नहीं तोले, तो मैं सबकी तोल दूं। कोई मेरी नहीं बोले, तो मैं सबकी बोल दूं। खुद की बड़ाई बक, बकता है पर निंदा। दूसरों को श्रापलोक, खुद को चाहिए किष्किंधा। खुद के न चुन सका, बनता है चुनिंदा। पर ऩजर से निहारे निज को, है खुदा का कारिंदा। पर वही बात, कोई मेरी नहीं छोले, तो मैं सबकी छोल दूं। कोई मेरी नहीं बोले, तो मैं सबकी बोल दूं।