Komal Kumari 16 Jun 2023 कविताएँ समाजिक 5846 0 Hindi :: हिंदी
अनजान थी मैं इस बदनाम बस्ती से मुझे कहां पता था कि मैं चीज बनी मस्ती की बुलाते हो मुझे कोठे वाली औरत समझते हो मुझे हाथों की कठपुतली। मंजर है भविष्य अपना यह जानकर भी कोठा आई हूं ,शौक हमें भी नहीं आना इस दल-दल में पर क्या करूं बेची गई हूं मजबूरी के नाम पर। आते हैं लोग यहां अपने जिस्म की भूख मिटाने, भूख तो उनकी मिट जाती है कुछ मिनटों में, उन मिनटों में नोची मैं जाती हूं दामों की किस्ती में। होता है दर्द मुझे भी पर अपने दर्द को छुपा कर तवायफ मुझे बनना पड़ता है। लोग उड़ाते हैं मुझ पर पैसा नाचने के नाम पर, वह भी नाचते हैं कोठा पर फिर, मुझ पर क्यों समाज वेश्यावृत्ति का आरोप लगाता हैं? फिर भी इस वेश्यावृत्ति गली में रक्षक भी इस चौखट में भक्षक बन आते हैं। रख अपनी लाज गिरवी मुझे लूटने आते हैं। भूख की आग में हर रात बेज्जती की रोटी खानी होती है। देख हर रोज नए चेहरे सहम सी मैं जाती हूं किसी की भूल की सजा में, मैं खुद को हर रोज तिल तिल लुटाती हूं। काश कोई हमदर्द हमारा भी होता जो आता मेरे पास मुझे बिन छुए, प्यार भरी दो बातें करता, पर यह सब हमारे लिए एक सपने जैसा अब जीना भी यहां हैं, और मरना भी यहां है। ये हैं दास्तान बदनाम बस्ती की।
#Mujhko pasand hai khud Ko hi padhna ek kitab hai mujhmein Jo mujhe aajmati hai. @ham Apne jivan ka...