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विकास और विनाश

Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक विकास और विनाश 93124 0 Hindi :: हिंदी

देखते- देखते, सब कुछ बदल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।


घरों में चूल्हों के लिए, काम आती थी मिट्टी।
गैस चूल्हे ने जड़े जमा ली, सरक गई सिल- बट्टी।
कमर दर्द, पेट दर्द, चूल्हे से निकलकर गिर गए भट्ठी।
गैस, क़ब्ज़ ने क़ब्जा कर लिया, डकार आ रही खट्टी।
खाद्याखाद्य, सारे स्वास्थ्य को तल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।
पहले महिलाएं, खुद ही चक्की पीसती थी।
पानी कुएं से, खुद ही खींचती थी।
शरीर का होता व्यायाम, नस-नस खुलती थी।
ऐसी महिलाओं के, बीमारी पास नहीं फटकती थी।
आज के छल -बल में, कल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।
देखते-देखते, सब कुछ बदल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।
पहले रगड़ -रगड़कर कपड़े, धोती थी दादी- नानी।
आज मशीन में ही हिलता है, पेट का नहीं हिलता पानी।
बटन दबाते सब तैयार, ठेठ गांव या हो राजधानी।
बटन की शराकत से, शुरू हुई विनाश कहानी।
विलासिता से मानव -अस्तित्त्व, मिट्टी में रल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।
बड़े आदमी कहलाते, जिनके ये सुविधा हो सारी।
बड़े आदमियों के मिलती है, बड़ी ही बीमारी।
अमीर -फ़क़ीर सब नाई, भोग रहे लाचारी।
न छुड़ौती न कुंची, न दवा तीमारदारी।
ऊपर से ठीक-ठाक, अंदर से राम निकल गया।
सुख- सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।
देखते-देखते, सब कुछ बदल गया।
सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।

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