Santosh kumar koli ' अकेला' 07 Sep 2023 कविताएँ समाजिक समझ का समय 12211 0 Hindi :: हिंदी
बेटे को समझ नहीं आता, भाव बाप होने का। समझता जब बनता बाप, क्या डर है फिर खोने का? बहू समझ नहीं पाती, भाव सास होने का। खुद बनती सास तब समझती, अब काम सिर्फ़ रोने का। ससुर भाव समझता, जब खुद घिरता इस घेर से। समझ में आता है, पर देर से। समझ नहीं पाती ननद, भाव भाभी होने का। खुद बनती भाभी तब समझती, रोना करहंज फ़सल बोने का। समझ नहीं पाती भतीजी, भाव बुआ होने का। खुद बुआ बनती तब समझती, काम अमिट कालिख धोने का। बुढ़ापा समझ में आता, बुढ़ापे के फेर से। समझ में आता है, पर देर से। किसी को समझ नहीं आता वक़्त, वक़्त होने का। वक़्त गए फिर समझाता, अब न दहलीज़ न कोने का। किसी को समझ नहीं आता, भाव ज़िम्मेदार होने का। ज़िम्मेदारी लदती तब समझता, क्या फ़ायदा फिर पोने का। मैं से वह का भाव समझता, जब लुढ़कता उम्र ढेर से। समझ में आता है, पर देर से। समझ में आता है, पर देर से।