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ग़ज़ल
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ग़ज़ल
पंसद नही हैं अगर तो भुला दे हमको
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तूने जो कही थी मन मे वो बात दबी है अबतक
तूने जो कही थी मन मे वो बात दबी है अबतक दिन के उजालों के पांव तले रात दबी है अबतक अछूतों से मतलब की वो बात तो हंसकर करते हैं कुंठित जहन म
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रोने के दिन वापस आ गए क्या
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उजालों से अंधेरों मे बदल गए लोग
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तेरे खावों ख्यालों की दुनियाँ हूँ मैं
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वो कोई दरवेश या कलंदर है तो मैं क्या करूँ
जितना बाहर उतना अंदर है तो मैं क्या करूँ वो अगर दरिया या समंदर है तो मैं क्या करूँ अपने मिज़ाज का मैं भी अड़ियल फकीर हूँ अपने मिज़ाज क
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कब्र के अंधेरों मे गलता रहा इंसान
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लापता काफिलों की एक कश्ती को किनारों से
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दोस्ती
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Kastiyon k samundar me utar jane k bad
कश्तियों के समुंदर मे उतर जाने के बाद काफिला पलटता नही गुजर जाने के बाद अपने गुनाहों की तौबा कर चुका हूँ अब मुश्किल है बिगड़ना सुधर ज
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parwat k sine ko do fad kar do tum
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muhabat k mare hum wha bhi the yha bhi hain
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