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सरकारी नौकरी सौतन बनकर खड़ी हो जाती थी

कुमार किशन कीर्ति 14 Jun 2023 कहानियाँ समाजिक खुला आसमान, परिवार 18236 0 Hindi :: हिंदी

विधा मिश्र आज बहुत ही ज्यादा खुश थे।कारण...वर्षों बाद अब अपने परिवार और समाज के साथ रहेंगे।बैंक में सरकारी नौकरी करते हुए उन्होंने रुपये तो बहुत कमाया,मगर पत्नी और बच्चों के साथ बहुत ही कम समय दे पाए थे।
गाँव से दूर शहर में रहकर नौकरी करते हुए उन्हें कभी-कभी अपनी पत्नी और बच्चों की बहुत याद आती थी।मगर, बीच में सरकारी नौकरी सौतन बनकर खड़ी हो जाती थी।किन्तु,आज विद्या मिश्र रिटायर होकर अपने घर वापस जा रहे थे।
ट्रैन में बैठकर उन्होंने अपनी समान को सुरक्षित रख दिया और खिड़की से बाहर का दृश्य देखने लगे।इसी बीच,ट्रैन भी चल पड़ी।अब,विद्या मिश्र समय काटने के लिए अखबार पढ़ने लगे।ट्रैन की बोगी में अन्य यात्रियों की आवाजें और चहलकदमी सुनाई पड़ रही थी।किन्तु,विद्या मिश्र को इससे कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ रहा था।
इस प्रकार ट्रैन भी गांव,बस्ती,शहर और नदी,जंगल,खेत इत्यादी से गुजरती हुई अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रही थी।
इस प्रकार पांच घण्टे की सफर करने के बाद विद्या मिश्र अपने गाँव की बाजार में पहुँच गए थे।
वे ट्रैन से उतरकर हाथ में अटैची और कंधे में बड़ा सा बैग लटकाकर जैसे ही दो कदम आगे बढ़े होंगे की एक रिक्शावाला उनके पास आकर बोला"बाबूजी,कहिए आपको कहाँ जाना है?"
यह सुनकर वह बड़े ही खुश होकर बोले"मुझे रामपुर गाँव में लेकर चलो,वहाँ एक सरकारी स्कूल है।बस...स्कूल के पास ही मेरा घर है।"फिर इतना कहने के बाद वह अपनी समान को रिक्शा में रखे और फिर बड़े ही इत्मीनान से बैठ गए।
रिक्शावाला भी अब रिक्शा चलाने लगा।बाजार,भीड़ सब अब पीछे छूटने लगे और रामपुर गांव धीरे-धीरे नजदीक आने लगा।
थोड़ी देर बाद बाजार बहुत पीछे रह गया।अब,रिक्शा एक ऐसी सड़क से होकर गुजर रही थी, जिसके दोनों तरफ खेत थे।कही फसलों को बोया गया था,तो कही जुताई करके छोड़ दिया गया था।
थोड़ी दूर पर रामपुर गाँव दिखाई दे रहा था।तभी विद्या मिश्र चौके।उन्होंने बिजली के खंभे को देख लिया था।
इसका मतलब उनका गाँव विकास कर लिया है।मतलब....गाँव में बिजली आ गई है!वह काफी खुश हो गए।फिर उन्होंने रिक्शावाला से पूछा"इस गाँव में बिजली कब आई?"यह सुनकर वह बोला"बाबूजी,अब रामपुर गाँव काफी बदल गया है।पक्की सड़कें, बिजली,अस्पताल सब आ गए हैं।जब से सरकार बदली है, समझो सब कुछ ठीक हो गया है।अब,आपको जरूरत की सारी चीजें बाजार में ही मिल जाएगी।शहर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।"उस रिक्शेवाले की बातें सुनकर विद्या मिश्र को याद आया की जब वह शहर में नौकरी करने जा रहे थे, तब यह गाँव कैसा था!और अब..?
इसी बीच रिक्शा गाँव में प्रवेश कर गया।वर्षों बाद विद्या मिश्र ने अपनी गाँव की मिट्टी को देखा था।कुछ जाने-पहचाने चेहरे उनका अभिवादन करने लगे।कुछ अनजान चेहरे गौर से उनकी तरफ देख रहे थे।खैर,सरकारी स्कूल नजर आ गई।विद्या मिश्र बोले"भाई, सामने जो पक्का का सफेद मकान दिखाई दे रहा है ना...वह मेरा ही मकान है।"
रिक्शावाला इशारा समझ गया।उसने रिक्शा वही घूमा दिया।थोड़ी देर बाद विद्या मिश्र अपने द्वार पर उतर गए।इसके बाद उन्होंने रिक्शेवाले को रुपये दिए,फिर सामान उठाकर अंदर गए।जैसे ही वह बरामदे में गए,सामने से उनकी धर्मपत्नी सुशीला आ रही थी।अपने पति को देखकर सुशीला की अधरों पर मुस्कान आ गई।
इसके बाद वह अंदर गए और अपनी सामान को कमरे की दाहिने तरफ की कोने में रख दिया।इसके बाद बड़े ही आराम से सोफे पर बैठ गए।
दोपहर का वक्त था।करीब-करीब दो बजे हुए थे।"रमेश कहाँ है?और,नीता भी दिखाई नहीं दे रही है?"विद्या मिश्र ने सुशीला की तरफ देखकर पूछा।यह सुनकर सुशीला बोली"रमेश ऑफिस से अभी आया नहीं है और नीता पड़ोस के घर गई हुई है।"इसी बीच रमेश की पत्नी चांदनी दो कप चाय लेकर आई और सामने  टेबल पर रखकर चली गई।
चाय पीने के बाद विद्या मिश्र ने आराम किया।शाम को पांच बजे के आसपास उनकी नींद खुली।बरामदे के पहले वाले कमरें में ही उनकी बिस्तर लगी हुई थी।
आंगन में सुशीला की जोरदार आवाज सुनाई दे रही थी।ऐसा लग रहा था की वह नीता को डांट रही है।
विद्या मिश्र जब आँगन में गए तो नीता चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी।"क्या हुआ?इसे क्यों डाट रही हो?"
यह सुनकर सुशीला बोली"यह लड़की पढ़ाई तो करती है नहीं, दिनभर पड़ोस की लड़की अनु के घर पर पड़ी रहती है।उसके घर जवान लड़कें हैं।"
विद्या मिश्र कुछ बोले नहीं।बस...मुँह-हाथ धोकर गाँव में टहलने के लिए निकल गए।
रात में रमेश आया, उससे मुलाकात हुई।मगर,रमेश ने विद्या मिश्र से ज्यादा बातचीत करना मुनासिब नहीं समझा।यह देखकर उनको बड़ा खराब लगा।उन्हें लगा की उनके आने से रमेश खुश नहीं है।
इस प्रकार, विद्या मिश्र की जिंदगी अब अपने परिवार के बीच बीतने लगी।इस दौरान,उन्होंने नीता की चाल-चलन पर गौर किया।एक सुबह वह बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे।इसी बीच नीता बाहर जाने के लिए निकली,मगर अपने पिता विद्या मिश्र को देखकर ठिठक गई।जैसे ही वह वापस कमरे में जा रही थी।विद्या मिश्र ने आवाज लगाई।"क्या हुआ पिताजी,आपने मुझे क्यों बुलाया है?"नीता थोड़ा घबड़ाकर बोली।यह सुनकर विद्या मिश्र नाराज होकर बोले"बहुत तुम्हारा मन लगता है अनु के घर पर,जाओ और पढ़ाई करो।"
यह सुनकर नीता को बहुत गुस्सा आया, मगर वह कर भी क्या सकती है?वह गुस्से से पैर पटकती हुई वहां से चल पड़ी।
उस दिन से नीता अपने पिता से छिप_छिपकर रहने लगी।रमेश भी पिता से ज्यादा बाते नहीं करता था।बस...उनकी पत्नी ही विद्या मिश्र के पास बैठा करती थी।मगर,एक दिन ऐसा वाकया हुआ जिससे विद्या मिश्र को काफी धक्का दिया।
दोपहर के लगभग तीन बजे थे।विद्या मिश्र बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे।इसी बीच उनकी पत्नी सुशीला चाय लेकर आई।
चाय लेकर विद्या मिश्र पीने लगे।इसी बीच सुशीला बोली"आपसे कुछ कहना चाहती हूं।"यह सुनकर वह बोले"अब इसमें इजाजत मांगने की कौन सी बात है।जो भी कहना चाहती हो,आराम से बोलो।"इतना कहने के साथ ही वह चाय की दुबारा चुस्की लिए।
"रमेश,चाहता है की अब घर में बटवारा हो जाए,उसको काफी दिक्कत होती है।"यह सुनकर विद्या मिश्र अवाक रह गए।कुछ पल के लिए उनको झटका लगा।फिर अपने आप को संभालते हुए बोले"आखिर कौन सी ऐसी बातें हो गई जिसके कारण रमेश घर में बटवारा चाहता है।"यह सुनकर सुशीला बोली"मुझे नहीं मालूम है की उसे क्या दिक्कत हो रही है?"
खैर,विद्या मिश्र कुछ नहीं बोले।उस दिन से रमेश छोटी_छोटी बातों पर लड़ने लगा। पहले तो वह अपने पिता से बहुत डरता था लेकिन अब तो उसे डर नाम की कोई चीज नहीं थी।
रमेश के साथ उसकी पत्नी भी अब घर में कलह करने लगी। पहले तो विद्या मिश्र समझे की रमेश धीरे_धीरे समझ जाएगा।मगर,जब पानी सर से ऊपर होने लगा,तब उन्होंने निदान निकाल लिया।
उस दिन रविवार का दिन था।रमेश अपने घर पर ही था।फिर क्या था.....?
बरामदे में बैठक हुई।रमेश आया,विद्या मिश्र भी वही थे।सुशीला भी बगल में बैठी हुई थी।रमेश की पत्नी बरामदे के बाद वाली कमरे में परदे से सब कुछ देख_सुन रही थी।
"तुम्हें क्या दिक्कत हो रही है?"विद्या मिश्र आराम से पूछने लगे।यह सुनकर रमेश बोला"मैं अपनी जिंदगी खुले रूप से जीना चाहता हूं।मुझ पर किसी प्रकार से कोई दबाव नहीं चाहिए।"उसकी आवाज में नाराजगी थी।
यह सुनकर विद्या मिश्र बोले"तब ठीक है रमेश,बटवारा तो नही होगा, मगर तुम घर से जरूर निकल सकते हो?घर में जवान बेटी है।बीमार मां है।तुम्हे इन दोनो की चिंता नहीं है क्या? मैंने तुम्हें पढ़ाया_लिखाया और इस काबिल बनाया की तुम दो पैसे आराम से कमा सको।रमेश,अगर तुम्हें दिक्कत हो रही है तो तुम अपने लिए अलग व्यवस्था कर लो। मगर, मैं अभी बटवारा नहीं चाहता हूं।यह खुला आसमान तुम्हें कोई ना कोई राह बता देगा।हर बार माता_पिता ही क्यों त्याग करें?हर बार माता_पिता ही बटवारे का दंश क्यों झेले?क्या अपने माता_पिता के प्रति संतानों की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है?"
रमेश चुपचाप सारी बातें सुन रहा था।मगर,कुछ कह नहीं सका।अपने पिता विद्या मिश्र की गुस्से के सामने आज उसकी औकात समझ में आ गई थी।

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