Vikas Yadav 'UTSAH' 30 Apr 2023 कहानियाँ बाल-साहित्य #विकास यादव #उत्साह #कहानी #उत्तर नहीं मिला, संस्मरण लेख 9369 0 Hindi :: हिंदी
संस्मरण लेख - उत्तर नहीं मिला आज सहसा कदम दर्जीयाने की तरफ मुड़ गया जहां से मुझे मेरे सिले हुए कपड़े वापस लाने थे, रास्ते के किनारे ही एक बड़ी सी बिल्डिंग थी लोगों का आना-जाना लगातार लगा ही रहा मुझे लगा कि कोई हॉस्पिटल होगा मगर जब कतारों में खड़ी बड़ी संख्या में साइकिले दिखीं तो मन प्रश्न पूछने पर उतर आया, क्या सच में हॉस्पिटल ही है ना? मन की तसल्ली के लिए ऊपर देखा तो अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में लिखा था 'पब्लिक स्कूल' यह देख मानों मन चिकित सा हो गया, इसलिए नहीं कि सुसज्जित बिल्डिंग बड़ी, संख्या में साइकिल से भरा स्टैंड, बल्कि इसलिए की स्कूल होते हुए भी इतना शांत वातावरण शांति उनके विद्यालय परिवार के अनुशासन को दर्शा रहा था, मगर मुझे पता नहीं क्यों एका-एक ऐसा लगा कि कुछ खो सा गया है, छोटे बच्चों की चुप्पी मुझे सोचने पर मजबूर कर दी । वह भी क्या जमाना था जब बच्चे दो एक्कम दो ,दो दूनी चार, क से कबूत्तर जब एक बच्चा बोलता और पूरी कक्षा उसका जोर-जोर से अनुशरण करती हालांकि कुछ ही दिनों के इस अभ्यास से कक्षा में सारे बच्चों को चीजें याद हो जाती और उनमें एक उत्साह दिखाई देता, मगर अब कुछ लोग कहते हैं कि वह शिक्षा प्रथा ठीक-ठाक थी परंतु उनके कारण स्कूल के अन्य बच्चों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, मैं कहता हूं काई का कठिनाई उस समय भी बच्चे पढ़ते कानों में उंगली डाल कर और शत-प्रतिशत अच्छे परिणाम भी होते और होते भी क्यों नहीं उनका ध्यान जो केंद्रित हो जाता बाहर की दुनिया से उनके किताबों पर । मैंने भी सुना है कि एक बार कोई महान व्यक्ति जो कि सड़क के किनारे लगी लाइट के नीचे पढ़ रहे थे तभी उनके पास एक व्यक्ति आया और पूछा क्या आपने एक बारात जाते देखा इधर से? तो उनका जवाब था ''जी नहीं'' हमने तो कोई बारात जाते नहीं देखी, उनका यह कथन दर्शाता है कि कोई व्यक्ति शोर के बीच भी अपने मूल कार्यों के प्रति अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है, तो ये स्कूल में ही ऐसा क्यों कहा जाता है और ये लोग क्यों ऐसा बोलते हैं । अब क्या था मन में और भी अनेक जिज्ञासाऐं उत्पन्न होने लगी क्या आज की यह प्रथा कुछ सुधार ला सकती है समाज में, या वही सब ठीक-ठाक था यदि कुछ सुधार हुआ है तो ठीक ही है पर पता नहीं मुझे ऐसा लगता है कि कुछ खो सा गया है, इतने में मुझे मेरे कपड़े के बारे में याद आ गया और मैं दर्जीयाने के तरफ चल पड़ा, कपड़े लेने के बाद भी मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि अभी भी मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला, बात यह नहीं है कि अब स्कूलों के चार दीवारों से बच्चों की पुनरावृत्ति स्वर क्यों नहीं सुनाई देती, बल्कि मैं इस संशय में हूं कि क्या वह सिखने और सीखाने की प्रथा गलत थी अब मेरे पैर घर की तरफ तेजी से चलने लगे मानों दिल में जिज्ञासा की लहर ही उमड़ पड़ी हो, घर जाकर एक लोग से पूछने की इच्छा भी जताई तो उत्तर में मिला कि यह विषय तुम्हारे सोचने की नहीं है अगर अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगाओ तो ही अच्छा है। मैं कहता हूं आखिर क्यों न सोच विचार करूं बात आखिर मेरे बचपन से लेकर आने वाले बचपन तक का था क्या मैं यूं ही चुप रहूं उत्तर की तलाश में घूमता फिरता हूं, एक आशा के दिया लिए अगर यह एक बदलाव है तो हाय! है ऐसे बदलाव को जिसका कारण पूछा तो लोग बताने को तैयार नहीं है, जिस बदला ने बचपन की उमंगें छीन ली। लेखक - विकास यादव 'उत्साह '