Santosh kumar koli ' अकेला' 03 Mar 2024 कविताएँ समाजिक चिड़ी की ज़िद 1813 0 Hindi :: हिंदी
एक चिड़ी, ले तिनका उड़ी, जमा नीम की डाली। दूजा लेने, दूजी बार उड़ी, तानापाई, मन घर खुशहाली। फर- फर उड़ती, देखी आकर, तिनके तृण तृण, डाल खाली की खाली। तिनकों संग अरमान उड़े, पर ना उफ़,ना रिस, ना गिला, गाली। नया जोश, नया होश, नई उमंग, राव -चाव से लग गई, अंधेरी- उजाली। जड़, तिनका- तिनका, चाल बनाई, उम्मीद, उमंग की, चितर जाली। कभी मनुज, कभी आंध -आंधी, खोता खोया, नियति हंसे दे -दे ताली। न कभी क़िस्मत पर रोई, न कभी हंत हड़ताली। कभी न टूटी, तितिक्षा रीढ़, न डरा सकी, रात काली। हौसलों का, गुथा घोंसला, फिर, फिर से आलना, यही ताली। वही नीड़, वही चिड़िया चुनचुन, वही प्रकृति, भद्रकाली। चरिंदे -परिंदे, से भी परे मनुज, करता, जल्प जुगाली।