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धर्म का सूक्ष्म तत्व क्या हैं

Deepak kumar Dwivedi 30 Mar 2023 आलेख धार्मिक धर्म का सूक्ष्म तत्व क्या हैं 10087 0 Hindi :: हिंदी

धर्म का सुक्ष्म तत्व क्या हैं 

धर्म को समझना बहुत कठिन है धर्म की व्याख्या करना भी कम शब्दों में करना बहुत दुष्कर कार्य है और असंभव है वेदों उपनिषदों में और ब्रह्माण ग्रंथों में जो बात लिखी हुई है वहीं बात को पुराणों में कथा के रूप में महर्षि वेदव्यास ने संकलित किया है कुछ पुराणों को काल्पनिक बताने का प्रयास करते हैं और कुछ लोग उसे कई हजार वर्ष में समेट देते हैं पुराणों में कई कथाओं का दोहराव मिलता है । तो कुछ लेखक और विचारक उस कथा को गलत सन्दर्भ में समझते हैं जैसे ब्रह्मा जी का ब्रह्म जी मानस पुत्री की सावित्री की कथा उस कथा के बारे विस्तार से पुराणों में है उस कथा दूसरे पहलू को समझे बिना ग़लत टिप्पणी करते हैं उस कथा में यह आता है उस तरह की परिस्थिति क्यों बनी थी और कारण क्या था उसे ये लोग छुपा देते हैं । उसी तरह डार्विनवादी भगवान विष्णु के 10 अवतार की कथा को सही मानते हैं मछली से जीवन की उत्पत्ति मानते हैं वह यह मानने को तैयार नहीं हैं बिना स्त्री पुरुष के सहयोग मे  जीवन की उत्पत्ति हो सकती है वो लोग ब्रह्रा  जी के  14 मानस पुत्रों की कथा को भूल जाते हैं वो मानने को तैयार नहीं हैं ये संभव हो सकता है  ब्रह्म जी की
 14 मानस पुत्रों के नाम 
 1.ब्रह्मा जी के मन से मारिची 
  2.ब्रह्मा जी के नेत्र से महर्षि अत्रि 
 3. ब्रह्मा जी के  मुख से अंगरिस
4. ब्रह्मा जी  के कान से पुलस्य 
5. ब्रह्मा जी के  नाभि से पुलह 
6.ब्रह्मा जी के हाथ से कृतु 
7. ब्रह्मा जी के त्वाचा से कृतु
8 ब्रह्मा जी के प्राण से वशिष्ठ
9. ब्रह्मा जी के अंगुष्ठ से दक्ष
10. ब्रह्मा जी के छाया से कदर्भ 
11. ब्रह्मा जी की गोद से नारद 
12 ब्रह्मा जी की इच्छा से सनक सनातन और सनतकुमार 
13. ब्रह्मा जी के शरीर से स्वयंभू मनु और शतरूपा 
14 . ब्रह्मा जी के ध्यान से चित्रगुप्त   ।

 तथाकथित इतिहासकार और डार्विनवादी सच स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं सृष्टि उत्पत्ति के संदर्भ में वेदों और पुराणों क्या कहते हैं  दैवीय प्रवृत्ति क्या है असुर प्रवृत्ति क्या है  और धर्म का सूक्ष्म तत्व क्या हैं सबकुछ आगे विस्तार  से  बताने का प्रयास करूंगा।
सृष्टि उत्पत्ति के संदर्भ में वेद उपनिषद क्या कहते हैं 

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: पर वेदितव्यं हि किञ्चित
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्तं त्रिविध ब्रह्ममेतत् “

श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१२

भावार्थ तीन तत्व है अनादि जिसका प्रारंभ न हो अनंत शाश्वत सदैव के लिए एक ब्रह्मा एक जीव माया है माया ब्रह्मांड की शक्ति है या ऐसा भी कह सकते हैं कि भौतिक ऊर्जा शक्ति है जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड बना है आत्मा का निर्माण माया से नहीं हुआ है और न ही ईश्वर से हुआ है क्योंकि उपयुक्त वेद मंत्र से यही कहा गया है की तीन नित्य तत्व है आनदि जिसका प्रारंभ नहीं हुआ है लेकिन यह अवश्य है कि आत्मा और माया की सत्ता भगवान कारण है ।
श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१० क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक अर्थात क्षर माया है अक्षर जीव दोनों का शासन करने वाला है भगवान है है अतएव माया और जीव भगवान का अध्यक्ष हैं भूमिरापोऽनलो वायु:खं बुद्धिरेव च अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृति प्रकृतिरष्टधा अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्
जीवभूतः महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्

भावार्थ पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार भी इस प्रकार से विभाजित मेरी जड़ प्रकृति माया है और महाबाहो इससे दूसरी को जिससे संपूर्ण जगत में धारण किया जाता है मेरी जीव रुप परा अर्थात चेतना प्रकृति आत्मा जान

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई जैसे उपर बताया गया है माया भगवान की शक्ति है तथा वो दिन किसी दिन नहीं बनी है और वो अनादि है तो उसी माया की शक्ति से संसार प्रकट हुआ है वैसे तो माया जड़ है अर्थात माया आप कुछ नहीं कर सकती हैं परन्तु भगवान अपनी इच्छानुसार माया को सक्रिय कर देते हैं हालांकि माया एक शाश्वत ऊर्जा है और भगवान की शक्ति है इसलिए सक्रिय करने की आवश्यकता है दूसरे शब्दों माया दिमाग रहित है और निर्जीव ऊर्जा है यह ब्रह्मांड प्रकट करने के लिए स्वयं निर्णय नहीं ले सकती है परन्तु भगवान माया को सक्रिय करते हैं तो स्वयं अंतर्निहित भोतिक गुणो के अनुसार माया ब्रह्मांड के रूप प्रकट करती है

ब्रह्माण्ड बनने का क्रम

तस्माद्वा एतास्मादात्मना आकाश सम्भूतं: आकाशाद्वयुः वायेरग्रिःअग्रेरापः अद्वयंः पृथिवी पृथिव्या ओषधयः ओषधीभ्योन्नम् अन्नात्पुरूषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः तस्येमेव शिरः अयं दक्षिण पक्ष अयमुत्तर :पक्ष अयमात्मा इदं पुच्छ प्रतिष्ठा तदप्येष श्लोकों भवति तैतिरोयोपनिषद २. १

भावार्थ निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्ध उस परामात्मा के पहल से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु से अग्नि से जल और जल तत्व से पृथ्वी तत्व उपन्न पृथ्वी से समस्त औषधियां उत्पन्न औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ अन्न से ही मनुष्य का शरीर उत्पन्न हुआ वह मनुष्य का शरीर निश्चय ही रसमय है उसका प्रत्यक्ष दिखने वाला सिर ही पक्षी कल्पना में सिर है यह दाहिनी भुजा में पंख है बायी भुजा में ही बाया पंख है यह शरीर का मध्यभाग है यह पर दोनों पैर ही पूछ है उसी विषय

आगे श्लोक कहा जाने वाला है इस मंत्र में ब्रह्राण्ड की उत्पत्ति के साथ मनुष्य के ह्रदय में गुफा वर्णन करने का उद्देश्य से पहले मनुष्य के शरीर की उत्पत्ति का प्रकार संक्षेप बताकर उसके अंगों की पक्षी के अंगों के रूप कल्पना की गई है इस मंत्र का भाव यह है कि परमात्मा से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु तत्व वायु तत्व से अग्नि तत्व से जल तत्व और जल तत्व से पृथ्वी उत्पन्न हुई पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां अनाज के पौधे हुए और औषधियों से मनुष्य का आहार अन्न उत्पन्न हुआ उस अन्न से यह स्थूल मनुष्य शरीर है उसकी पक्षी के रूप कल्पना की गई है उपयुक्त उपनिषद के मंत्र पृथ्वी जल से उपन्न होने की बात संक्षेप में की गई है । और पृथ्वी के प्राकट्य विस्तार ऋग्वेद में इस प्रकार से की गई है

भूर्जज्ञ उतानपदो भुवं आशा अजायन्त
ऋग्वेद १०. ७२.४

भावार्थ पृथ्वी सूर्य से उपन्न होती हैं अर्थात , भगवान की प्रेरणा से ब्रह्राण्ड बनता है और प्रलय होता है यह ब्रह्मांड का प्रलय बिल्कुल ब्रह्राण्ड उत्पत्ति के विपरित होता है अर्थात प्रलय कर्म है और पृथ्वी जल विलीन हो गई जल अग्नि में अग्नि वायु में आकाश और आकाश भगवान में अंत में केवल भगवान ही रहते हैं आत्मा महोदर् में रहती हैं तथा माया जड़ समान हो जाती है 
पुराणों में सृष्टि उत्पत्ति के संदर्भ में क्या कहा गया है  

सृष्टि उत्पत्ति के संदर्भ में जो तथ्य वैज्ञानिक आधार पर वेदों उपनिषदों में दिए गए हैं उसी तथ्य को पुराणों में विस्तार से वर्णित किया गया है वेदों में सृष्टि उत्पत्ति परम ब्रह्म इच्छा अनुसार माया ने की है वेदों में सृष्टि उत्पत्ति कारण तीन गुण को माना है सत तम रज गुणो से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है जो बात वेद कहते हैं सृष्टि उत्पत्ति परम ब्रह्म  के इच्छा अनुसार से हुई है वहीं  परम ब्रह्म की योगनिद्रा को माया को पुराणों में आदि शक्ति कहा है आदि शक्ति ने परम ब्रम्ह की अज्ञा अनुसार सृष्टि के संचालन के लिए तीन गुणों से ब्रह्मा विष्णु महेश को प्रगट किया सत गुण से ब्रह्मा जी हुए उनका कार्य सृष्टि सृजन करना  रज गुण से विष्णु जी हुए जिनका कार्य सृष्टि पालन करना महेश तप गुण से उनका कार्य सृष्टि में लय करना परमब्रह्म की योगनिद्रा माया ने सृष्टि के सुचारू रूप संचालित करने के लिए ब्रह्मा विष्णु महेश को प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया है ना ब्रह्मा अलग है न विष्णु न महेश न योगनिद्रा आदि शक्ति माया है। सब मे परम ब्रह्म है अर्थात सब एक हैं इसी को अद्वैत दर्शन को वेद पुराण उपनिषद सभी कहते हैं जब वही बात वेदों में कही गई है वहीं बात पुराणो में कहीं गई है फिर भी लोग सच स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । इसलिए क्योंकि ऐसे लोगों को धर्म सुक्ष्म तत्व का आभास नहीं है धर्म क्या है ये लोग अधर्म को धर्म सिद्ध करने लगते हैं इसे को ईश्वर असुरी प्रवृत्ति कही है धर्म के सुक्ष्म तत्व को समझना है तो दैवीय प्रवृत्ति असुरी प्रवृत्ति को समझना होगा। 
 श्रीमद्भागवत गीता अनुसार दैवीय प्रवृत्ति और असुर प्रवृत्ति क्या होती है 

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।१६ .३।।

 अर्थात  हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।
 दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।१६.५।।
 
अर्थात 
हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकका होना भी -- ये सभी आसुरीसम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं। 

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।१६.५।।
अर्थात
हे पाण्डव ! दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिए मानी गयी है, तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए हो।। 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।१६.६।।

अर्थात
 इस संसारमें मनुष्योंकी दो सृष्टियाँ हैं। जिसकी रचना की जाय वह सृष्टि है? अतः दैवी,सम्पत्ति और आसुरी सम्पत्तिसे युक्त रचे हुए प्राणी ही? यहाँ भूतसृष्टिके नामसे कहे जाते हैं। प्रजापतिकी दो संतानें हैं देव और असुर इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है। क्योंकि इस संसारमें सभी प्राणियोंके दो प्रकार हो सकते हैं। प्राणियोंकी वे दो प्रकारकी सृष्टियाँ कौनसी हैं इसपर कहते हैं कि इस प्रकरणमें कही हुई दैवी और आसुरी। कही हुई दोनों सृष्टियोंका पुनः अनुवाद करनेका कारण बतलाते हैं -- दैवी सृष्टिका वर्णन तो अभयं सत्त्वसंशुद्धिः इत्यादि श्लोकोंद्वारा? विस्तारपूर्वक किया गया। परंतु आसुरी सृष्टिका वर्णन विस्तारसे नहीं हुआ। अतः हे पार्थ उसका त्याग करनेके लिये? उस आसुरी सृष्टिको? तू मुझसेमेरे वचनोंसे? विस्तारपूर्वक सुन? यानी सुनकर निश्चय कर।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।१६.७।।
अर्थात 
आसुरी स्वभाव के लोग न प्रवृत्ति को; जानते हैं और न निवृत्ति को उनमें न शुद्धि होती है, न सदाचार और न सत्य ही होता है।।

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।१६.८।। 

अर्थात तथा --, वे आसुर स्वभाववाले मनुष्य कहा करते हैं कि जैसे हम झूठसे भरे हुए हैं? वैसे ही यह सारा संसार भी झूठा और प्रतिष्ठारहित है? अर्थात् धर्मअधर्म आदि इसका कोई आधार नहीं है? अतः निराधार है तथा अनीश्वर है? अर्थात् पुण्यपापकी अपेक्षासे इसका शासन करनेवाला कोई स्वामी नहीं है? अतः यह जगत् बिना ईश्वरका है। तथा कामसे प्रेरित हुए स्त्रीपुरुषोंका आपसमें संयोग हो जानेसे ही सारा जगत् उत्पन्न हुआ है? अतः इस जगत्का कारण काम ही है? दूसरा और क्या हो सकता है अर्थात् ( इसका ) धर्मअधर्मादि कोई दूसरा अदृष्ट कारण नहीं है? केवल काम ही प्राणियोंका कारण है। यह लोकायतिकों की दृष्टि है। 

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।१६.९।।
 अर्थात 
इस दृष्टिका अवलम्बन -- आश्रय लेकर जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है? जो परलोकसाधनसे भ्रष्ट हो गये हैं? जो अल्पबुद्धि हैं -- जिनकी बुद्धि केवल भोगोंको ही विषय करनेवाली है? ऐसे वे अल्पबुद्धि? उग्रकर्मा -- क्रूर कर्म करनेवाले? हिंसापरायण संसारके शत्रु? संसारका नाश करनेके लिये ही उत्पन्न होते हैं। 
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।१६.१०।।

कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मदमें चूर रहनेवाले तथा अपवित्र व्रत धारण करनेवाले मनुष्य मोहके कारण दुराग्रहोंको धारण करके संसारमें विचरते रहते हैं।  

असुरी प्रवृत्ति को मानने वाला व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को नकारता है वो माया रूपी सृष्टि को सच मानता है इसलिए आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग धर्म को सुक्ष्म तत्व की व्याख्या करने पुराणों को काल्पनिक बताने का प्रयास करते करते रहते हैं इसलिए यह लोग हर व्यवस्था प्रश्न उठाते हैं जो सृष्टि संचलन के लिए जरूरी है ये लोग वैदिक कर्मकाण्ड को गलत सिद्ध करते हैं अचार व्यवहारो का पालन नहीं करते हैं वर्ण व्यवस्था का हमेशा विरोध करते हैं स्त्री को भोग की वस्तु समझते हैं और पुनः जन्म की सिद्धांत को नहीं मानते हैं इसलिए आसुरी प्रवृत्ति मानने वाले लोग उस हर व्यक्ति को शत्रु मानते हैं जो इनका सिद्धांतो को नहीं मानता है इसलिए असुरी प्रवृत्ति दैवीय प्रवृत्तियों के बीच सृष्टि के आरंभ से युद्ध चल रहा है इसलिए यह हर कालखंड में धर्म को मिथ्य सिद्ध करने प्रयास करते हैं कभी विष्णु को अपना शत्रु मानते हैं आज वही भगवान विष्णु के दशावतार को सही मानते हैं मैथुनिक सृष्टि को सही सिद्ध करने प्रयास करते हैं जिससे धर्म को मानने वाली सात्विक प्रवृति वाले अपने मार्ग से भटक जाए इसलिए करोड़ों वर्ष की सभ्यता कुछ हजार वर्ष में समेटने का प्रयास करते हैं इनके लिए हर वह तथ्य काल्पनिक होता है जो इनको तथ्यों मिथ्य सिद्ध करता है ये लोग ब्रह्मा जी के 14 मानस पुत्रों की बात को मिथक कहते हैं मैथुनिक सृष्टि सिद्ध करने के लिए भगवान विष्णु के दशावतार की बात सही लगती है 24 अवतार की बात कल्पनिक लगती है यह असुरी प्रवृत्ति हर काल खंड और युग में  नवीन रूपो में सामने आती है कभी मधु कैटभ रूप आती है तो कभी हिरण्याक्ष हिरण्यकश्यप के रूप में सामने आती है तो कभी रावण के रूप में सामने आती हैं कभी अपने परिवार में दुर्योधन के रूप सामने आती हैं आज आपने मत पंथ मजहब रूप सामने आ रही है आज हर मनुष्य में आसुरी प्रवृत्ति विद्यमान है इसलिए हर काल में भगवान नारायण को इन आसुरी प्रवृत्तियों के विनाश के लिए और  धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेना पड़ता है । 

धर्म का सुक्ष्म तत्व क्या 

धर्म ब्रह्मांड की परम ज्योति है 
धर्म जीवन है धर्म संतुलन है 
धर्म अनुशासन है 
 त्याग और तप  धर्म है
धर्म शौर्य है धर्म साहस है धर्म तेज है 
प्रेम ही धर्म है 
करूणा भी धर्म है 
सत्य भी धर्म है 
न्याय और नीति भी धर्म है  
ज्ञान भी धर्म विज्ञान भी धर्म है 
कर्म ही धर्म है 
दान ही धर्म है 
मोक्ष ही धर्म है 
धर्म शाश्वत है  
धर्म सनातन है
 धर्म पुरातन है 
धर्म नव नित नूतन है
जिसे धारण किया जाए वही धर्म है  । 

जय श्री हरि 
दीपक कुमार द्विवेदी

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