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Umendra nirala
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Umendra nirala
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Umendra nirala
@ umendra-nirala
, Madhya Pradesh
I am a student and I am interested writing poem.
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मेरा गाँव
( मेरा गाँव ) जहां वृक्ष खड़े हैं,झुककर शुद्ध हवा उनकी स्वाभाव में चाह उनमें इतना देने कि, आदि से अंत सर्वस्व समर्पण। वह �
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नारी शक्ति
जिसके सिर पर जिम्मेदारी है, वह एक नारी है। अपने में संकट आने पर अदम्य रूप धारण करती अत्यंत ज्वलंत भीषण शक्ति से, सब पर भारी है। वह एक न
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शुरुआत
डूबता है, तब भी उसमें आस होती है,प्रभात कि शांत हो यदि कोई तो होता उनमें साहस उत्पात कि अब जरुरत है, फिर से एक नयी शुरुआत कि। थ�
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पहचान
कुछ न होते हुए झूठे अरमान में है, पर कटा परिंदा भी अब उड़ान मे है। रहे शिकन माथे पर क़स रहे थे ताने, जीत हुई निश्चय तो सारा जहान है। गाँव क
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न्याय
गुनाह कर सर उठाये बोलता है, गीता कि क़सम खाकर न्याय तौलता है। अपने गुनाहों में डाल पर्दा खड़ा हुआ है, शातिर सा औरों के राज खोलता है। नाग
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बादल
हे बादल! अब तो बरसो भू - गर्भ में सुप्त अंकुर क्षीण अनाशक्त, दैन्य-जड़ित अपलक नत-नयन चेतन मन है, शांत। नीर प्लावन ला एक़ बार देख प्रकोप ह
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कलम की ताक़त
जब मैं निः शब्द हो जाता हूँ, नही सूझता जब कुछ भी तब कलम बोलती है। जब अन्याय की सरगर्मी तेज़ हो, न्याय दबाने के प्रयास हुए तब कलम बोलती
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मौत
आहिस्ता आहिस्ता जिंदगी बीत रही थी, मन चंचलता में खेल रहा था। उम्र ने भी क्या खेल खेला जवानी की लालसा दिखाकर, बचपन को भी छीन रहा था। जीव�
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संघर्ष
करता क्यों प्रयास नहीं आंखें धुंधला गई क्या तेरी, वक्त बड़ा गर्दिश है साहब फिर से करता क्यों प्रयास नहीं। मिली असफलता अनेकों बार मन �
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दीपक
देख बुराई अपने अंदर इसे मरना ही चाहिए, जीवन में फैला अंधेरा मिटना हि चाहिए। यह दीपक है इसे जलना ही चाहिए। लगी विचारों में बरसों की दी�
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