Shreyansh kumar jain 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक 50000 41755 1 5 Hindi :: हिंदी
ग्रामीण परिवेश अब खोता जा रहा है, इंसान शहरी चकाचौंध में अब जो रमता जा रहा है, शुद्धता को छोड़कर अब इंसान जो गांवों से भाग रहा है, शहरी अशुद्धता में रहकर इंसान जो मरता जा रहा है। गाँव के गाँव दिनों-दिन जो खाली हो रहे है, शहर में आकर इंसान अपने ही पराये हो रहे है, गाँव के वो खेत खलिहान बंजर होते जा रहे है, बोये ते जो सपने हमनें वो भी अब शहरी रंग में जो रंगे जा रहे है। गाँवों की वह हरी-भरी गलियाँ विरान सी हो गयी है, अपनी विरासत को समेटे अब मायूस सी हो गयी है, ग्रामीण परिवेश को अब जैसे राहु-केतू का दोष सा लग गया है, गाँवों में भी इंसान को अब शहरी होने का यह रंग जो चड गया है। गाँवों की वह मान-मर्यादा, सभ्यता और सम्मान भी कहीं खो सा गया है, शहर में रहने के बाद अपनत्व का वह भाव पराया सा हो गया है, क्योंकि अब गाँवों में भी शहरी भूत बनने का ख्वाब जो चड गया है, इंसान आज अपने गाँवों से दूर किसी शहर में पराया हो गया है।
6 months ago