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Santosh kumar koli ' अकेला'

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एक विषधर, बीच डगर। पड़ा, मेरे सफ़र। मैं ठिठका, अटका, देख चट-पट चक्कर। काला- काला, स्फीत स्फोटा। बीच रास्ते, लोटा -पोटा। कभी हिले, कभी डु read more >>
ये छलियों के छली, ऐयारों के ऐयार। कभी गज, कभी ऊंट, कभी घोटक सह सवार। कभी पौधा, कभी दरख़्त, बिन जड़ आधार। कभी रूई, कभी उलटते, कोह से आकार। read more >>
सामने गुस्से से, डांटती, डपटती है। सोए हुए का धीरे से आ, माथा चूमती है। सामने निठल्ला, निकम्मा, कामचोर कहती है। बाहर मेरी बड़ाई करते, क read more >>
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